मार्टिन
वाकर
का
कहना
है- समाचार
पत्र
का
इतिहास
वस्तुतः
उस
राष्ट्र
का
इतिहास
है,
जहाँ
से
वह
प्रकाशित
होता
है।
समाचार
पत्रों
की
व्याप्ति
उस
राष्ट्र
की
राजनीति
से
कहीं
अधिक
होती
है।
समाचारपत्र
एक
राष्ट्र
की
संस्कृति
का
दैनन्दिन
का
लेखा-जोखा
है।
इससे
स्पष्ट
है
कि
पत्र-पत्रिकाओं
में
प्रकाशित
सामग्री
बीते
हुए
कल
का
जीवंत
इतिहास
बनाती
है।
इनमें
समकालीन
सामाजिक,
राजनैतिक,
आर्थिक,
सांस्कृतिक,
गतिविधियों
का
विवरण
होता
है
जिनमें
सम्पूर्ण
समाज
प्रतिबिम्बित
होता
है।
इनमें
प्रकाशित
आलेख
देश
की
वैचारिक
परम्परा
के
संवाहक
तो
होते
ही
हैं,
साथ
ही
वे
तत्समय
की
प्रमुख
घटनाओं
को
परखने
की
दृष्टि
देते
हैं।
पत्र-पत्रिकाओं
की
इस
निर्विवाद
महत्ता
को
ध्यान
में
रखते
हुए
चौबीस
वर्ष
पूर्व
सन
1984
में
व्याकरणाचार्य
कामताप्रसाद
गुरू
की
साहित्यिक
एवं
पत्रकारीय
धरोहर
से,
जो
उनके
पुत्र
रामेश्वर
गुरू
द्वारा
सौंपी
गयी,
भोपाल
में
कमला
पार्क
स्थित
बुर्ज
में
समाचारपत्र
संग्रहालय
का
बीजारोपण
हुआ
था।
स्थापना
के
प्रारंभिक
वर्षो
में
ही
इसके
चमत्कारिक
विकास
ने
अपनी
प्रासंगिकता
और
उपयोगिता
की
धाक
जमा
दी
और
लोग
इसके
सम्भावना
भरे
भविष्य
के
प्रति
बड़े
आशान्वित
नजर
आने
लगे।
लब्धप्रतिष्ठ
पत्रकार
श्री
राजेन्द्र
माथुर
ने
1986
में
संग्रहालय
पर
टिप्पणी
करते
हुए
कहा
था- जब
बीज
अंकुरित
होकर
इतनी
आशा
जगा
रहा
है
तो
पेड़
बनने
पर
उपलब्धि
निश्चय
ही
बहुत
बड़ी
होगी।
यह
संग्रहालय
अखिल
भारतीय
महत्व
अर्जित
करेगा।
इतिहासविद्
श्री
शम्भुदयाल
गुरू
के
अनुसार
शोधकर्त्ताओं
की
आने
वाली
पीढ़ियाँ
सप्रे
संग्रहालय
की
ऋणी
रहेंगी।
जल्दी
ही
संग्रहालय
ने
बुद्धिजीवियों
के
बीच
ऐसा
विश्वास
जमा
लिया
कि
लोग
अपनी
बौद्धिक
धरोहर
को
बेहिचक
सौंपने
लगे
जिससे
पत्र-पत्रिकाओं
का
इसका
खजाना
समृद्ध
होता
चला
गया।
यद्यपि
इन
सामग्री
दाताओं
की
फेहरिश्त
देशव्यापी
और
बहुत
लम्बी
है
फिर
भी
इनमें
से
कुछ
प्रमुख
नाम-
सर्वश्री
बृजभूषण
चतुर्वेदी,
रतनलाल
जोशी,
धन्नालाल
शाह,
अमृतलाल
वेगड़,
लक्ष्मीनारायण
अग्रवाल,
यशवंत
नारायण
मोघे,
अनंतमराल
शास्त्री,
प्रो.
हनुमान
वर्मा,
यशवन्त
अरगरे,
आग्नेय,
प्रो.
विजय
बहादुर
सिंह,
निर्मल
नारद,
डॉ.
धनंजय
वर्मा,
शिवप्रसाद
मुफलिस,
देवीदयाल
चतुर्वेदी
मस्त,
जगदीशप्रसाद
चतुर्वेदी,
श्रीरंजन
सूरिदेव,
गोविन्द
मिश्र,
बालशौरि
रेड्डी
आदि
हैं।
सन
1990
में
मनीषी
संपादक
एवं
चिंतक
श्री
नारायणदत्त
ने
इसे
शोधार्थियों
के
लिए तीर्थ
स्थान
की
संज्ञा
दी।
सन
1991
में
मध्यप्रदेश
उच्च
शिक्षा
अनुदान
आयोग
के
तत्कालीन
अध्यक्ष
डॉ.
ओम
नागपाल
ने
संग्रहालय
को
शोध
केन्द्र
का
रूप
देने
की
अनुशंसा
की।
अन्ततः
फरवरी
1995
में
बरकतउल्ला
विश्वविद्यालय,
भोपाल
ने
इसे
अपने
शोध
केन्द्र
के
रूप
में
मान्यता
प्रदान
की
और
तब
इसके
नाम
में
समाचारपत्र
संग्रहालय
के
साथ
शोध
संस्थान
जुड़
गया।
माखनलाल
चतुर्वेदी
राष्ट्रीय
पत्रकारिता
एवं
जनसंचार
विश्वविद्यालय
ने
भी
इसे
अपना
शोध
केन्द्र
घोषित
किया
है।
पत्रकारिता
एवं
जनसंचार
के
अतिरिक्त
साहित्य,
राजनीति,
इतिहास,
अर्थशास्त्र,
समाजशास्त्र,
कला-संस्कृति,
धर्म-दर्शन,
जैसे
विषयों
में
भी
एक
उत्कृष्ट
शोध
केन्द्र
के
रूप
में
संस्थान
की
ख्याति
देश-विदेश
में
बनी
है।
प्रारम्भ
से
ही
इस
संस्थान
के
प्रति
प्रदेश
सरकार
के
जनसम्पर्क
विभाग
एवं
भोपाल
नगर
निगम
का
नजरिया
सक्रिय
सहयोग
का
रहा।
शोध
संस्थान
के
स्वयं
के
भवन
का
शिलान्यास
2
मार्च
1995
को
हुआ
और
पं.
माधवराव
सप्रे
की
125वीं
जयन्ती
के
दिन
19
जून
1996
को
इस
भवन
का
उद्घाटन
हुआ।
इससे
संग्रहीत
सामग्री
के
उचित
रखरखाव
और
उसके
उपयोग
की
बेहतर
व्यवस्था
सम्भव
हुई।
पूरे
देश
में
शोधार्थियों
और
अध्ययनकर्ताओं
के
बीच
इस
शोध
केन्द्र
की
ख्याति
इसलिए
भी
है
कि
यहाँ
शोध
सामग्री
को
बहुत
ही
अनूठे
अंदाज
में
वर्गीकृत
करके
रखा
गया
है
जो
वांछित
संदर्भ
सामग्री
की
तुरंत
एवं
सहज
उपलब्धता
को
सुनिश्चित
करता
है।
संग्रहालय
के
सम्बन्ध
में
एक
महत्वपूर्ण
एवं
उल्लेखनीय
तथ्य
यह
है
कि
यहाँ
हिन्दी-उर्दू
एवं
अँगरेजी
के
अलावा
लगभग
सभी
भारतीय
भाषाओं
की
अनेक
पत्र-पत्रिकाओं
की
फाइलें
अपने
प्रथम
अंक
से
मौजूद
हैं।
विशेषकर
उर्दू
और
मराठी
पत्रकारिता
के
सम्बन्ध
में
तो
यह
दावा
भी
किया
जा
सकता
है
कि
ऐसा
अनूठा
संग्रह
सम्भवतः
देश
में
कहीं
अन्यत्र
देखने
को
नहीं
मिल
सकता।
कुछेक
पत्र-पत्रिकाओं
के
ऐसे
अंक
भी
यहाँ
हैं
जो
उनके
प्रकाशन
संस्थानों
के
पास
भी
मौजूद
नहीं
हैं।
संग्रहालय
में
उपलब्ध
विपुल
सन्दर्भ
सामग्री
की
सूची
इसके
द्वारा
प्रकाशित
विवरणिका
में
उपलब्ध
है।
इस
सामग्री
के
शोधपरक
अध्ययन
से
जहाँ
एक
ओर
कुछेक
मान्यताएँ
ध्वस्त
हुई
हैं
तो
कुछ
सर्वथा
नए
तथ्य
भी
सामने
आए
हैं।
इसमें
भारतीय
स्वतंत्रता
संग्राम (1857-1947)
का
आँखों
देखा
इतिहास
दर्ज
है
जो
इस
महान
संग्राम
में
भारतीय
पत्रकारिता
के
अवदान
को
भी
उजागर
करता
है।
सन 1857
के
प्रथम
स्वतंत्रता
संग्राम
की 150वीं
वर्षगांठ
के
कार्यक्रमों
के
अन्तर्गत
मध्यप्रदेश
शासन
के
जनसम्पर्क
विभाग
द्वारा
प्रकाशित
कृति
समाचारपत्रों
में
1857
की
पाण्डुलिपि
तैयार
कर
संग्रहालय
ने
अपने
पास
उपलब्ध
सामग्री
की
उपयोगिता
एवं
महत्ता
सिद्ध
की
है।
सैकड़ों
शोधार्थियों
ने
यहाँ
की
सामग्री
का
अध्ययन
कर
अपने
शोध
प्रबंध
तैयार
किए
हैं।
सामान्य
शोधार्थियों
के
अतिरिक्त
देशभर
के
अनेक
विद्वानों,
पत्रकारों,
साहित्यकारों
ने
अपने
व्यक्तिगत
लेखन
के
लिए
इस
संग्रहालय
का
उपयोग
किया
है।
इनमें
सर्वश्री
कमलेश्वर,
विष्णु
खरे,
डॉ.
कमल
किशोर
गोयनका,
लक्ष्मण
केडिया,
सच्चिदानंद
जोशी,
सुरेश
मिश्र,
मदन
मोहन
जोशी,
अच्युतानंद
मिश्र,
डा.
सत्यनारायण
शर्मा,
प्रो.
मैनेजर
पाण्डेय,
रमेश
मुक्तिबोध,
जवाहर
कर्नावट,
चित्रा
मुद्गल
जैसे
मूर्धन्य
विद्वान
शामिल
हैं।
संग्रहालय
ने
शोध
और
संदर्भ-सामग्री
के
संग्रहण
के
प्रति
अपनी
तीव्र
लालसा
को
न
केवल
सतत्
कायम
रखा,
स्वयं
भी
इस
सामग्री
के
शोध
अध्ययन
और
उसके
प्रकाशन
के
क्रम
को
भी
निरंतर
बनाए
रखा
है। भारतीय
पत्रकारिता
कोश (1780-1947),
माधवराव
सप्रे
व्यक्तित्व
और
कृतित्व, भारतीय
पत्रकारिता
:
नींव
के
पत्थर
जैसे
इसके
प्रकाशनों
ने
अपनी
अकादमिक
मूल्यवत्ता
के
आधार
पर
पत्रकारिता
जगत
में
अच्छी
पैठ
बनायी
है।
यहाँ
से म.प्र.
की
उर्दू
सहाफत
इब्तेदा
और
इरतिका, मध्यप्रदेशातील
मराठी
पत्रकारिता, छत्तीसगढ़ः
पत्रकारिता
की
संस्कार
भूमि, हस्ताक्षर, स्मृति
बिम्ब, समय
से
साक्षात्कार, तेवर, खबर
पालिका
की
आचार
संहिता
जैसी
शोधपरक
पुस्तकें
प्रकाशित
हुई
हैं
जो
संग्रहालय
की
गहन
शोध
संलग्नता
और
उसकी
निरन्तरता
की
परिचायक
हैं।
संथान
ने
जनसंचार
पर
केन्द्रित
मासिक
पत्रिका
आंचलिक
पत्रकार
के
प्रकाशन
के
दायित्व
का
निर्वहन
पूरी
शिद्दत
के
साथ
किया
है।
पत्रिका
के
जिन
विशेषांकों
की
बहुत
चर्चा
हुई
उनमें गुलामी
के
खिलाफ
कलम
और
कागज
का
जेहाद, राष्ट्रीय
आन्दोलन
और
पत्रकारिता, प्रतिबंधित
पत्र-पत्रिकाएँ, हिन्दी
पत्रकारिता
के
175
वर्ष, मध्यप्रदेश
में
पत्रकारिता
के
150
साल, सरस्वती, छत्तीसगढ़
मित्र, विज्ञान
लेखन
कौशल
और
चुनौतियाँ
और महिला
पत्रकारिता
विशेष
रूप
से
उल्लेखनीय
हैं।
देश
के
यशस्वी
पत्रकारों
के
कृतित्व
पर
पत्रिका
के
जो
विशेषांक
बहुप्रशंसित
एवं
चर्चित
रहे
हैं
उनमें गणेश
शंकर
विद्यार्थी, द्वारकाप्रसाद
मिश्र, माखनलाल
चतुर्वेदी, माधवराव
सप्रे, झाबरमल्ल
शर्मा, बालकृष्ण
शर्मा
नवीन, गणेश
मंत्री, देवीदयाल
चतुर्वेदी
मस्त
प्रमुख
हैं।
इन
प्रकाशनों
ने
संस्थान
की
प्रतिष्ठा
को
नई
ऊचाइयाँ
तो
दी
ही,
साथ
ही
हिन्दी
पत्रकारिता
जगत
को
भी
समृद्ध
बनाया
है।
इसी
क्रम
में
संस्थान
ने
पत्रकारिता
एवं
समाज
से
जुड़े
विषयों
पर
संगोष्ठियों
का
आयोजन
करके
अपनी
गहरी
अकादमिक
अभिरुचियों
को
भी
अभिव्यक्त
किया
है।
संस्थान
ने
पत्रकारों
एवं
पत्र-पत्रिकाओं
को
भी
सम्मानित
और
पुरस्कृत
करने
की
परम्परा
डाली
है।
संस्थान
द्वारा
प्रतिवर्ष
दिए
जाने
वाले
सम्मान
हैं-
लाल
बलदेवसिंह
सम्मान
(ज्येष्ठ
पत्रकारों
के
लिए),
माखनलाल
चतुर्वेदी
पत्रकारिता
पुरस्कार
(सम्पादन),
जगदीशप्रसाद
चतुर्वेदी
पत्रकारिता
पुरस्कार
(रिपोर्टिंग),
रामेश्वर
गुरू
पत्रकारिता
पुरस्कार
(पत्रिका,
फीचर),
झाबरमल्ल
शर्मा
पुरस्कार
(इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया),
के.पी.
नारायणन
पुरस्कार
(अँगरेजी
पत्रकारिता)।
इन
पुरस्कारों
की
आयोजना
एवं
संयोजना
इस
तरह
से
की
गयी
है
कि
पत्रकारिता
की
बुजुर्ग
पीढ़ी
के
सम्मान
के
साथ
ही
नवोदित
पीढ़ी
का
उत्साहवर्धन
भी
हो।
संस्थान
ने
देश
की
प्रतिष्ठित
पत्र-पत्रिकाओं,
पत्रकारों
और
समसामयिक
विषयों
पर
एकाग्र
प्रतिष्ठा-आयोजन
भी
किए
जिनमें
अभिव्यक्ति
की
स्वतंत्रता
और
आतंकवाद
के
बढ़ते
खतरे,
उर्दू
सहाफत
की
विरासत
और
मौजूदा
हालात,
बालकृष्ण
शर्मा
नवीन
जन्मशताब्दी,
सूचना
का
अधिकार,
स्वतंत्रता
संग्राम
में
पत्रकारिता
की
भूमिका,
मध्यप्रदेश
में
पत्रकारिता
के
150
साल,
लोकचेतना
में
आंचलिक
पत्रकारों
की
भूमिका,
पं.
द्वारका
प्रसाद
मिश्र
जन्मशताब्दी
समारोह,
विशेष
रूप
से
उल्लेखनीय
हैं।
इनमें
देश
के
वरिष्ठ
पत्रकारों,
साहित्यकारों
और
राजनीतिज्ञों
की
व्यापक
हिस्सेदारी
रही।
इसी
कड़ी
में मीडिया
में
महिला
विमर्श
विषय
पर
दो
दिवसीय
राष्ट्रीय
संगोष्ठी
में
हर
क्षेत्र
की
प्रबुद्ध
महिलाओं
की
वैचारिक
और
सक्रिय
भागीदारी
ने
इसे
विशिष्ट
एवं
यादगार
विमर्श
बनाया।
वर्ष
2006
से
राष्ट्रीय
विज्ञान
एवं
प्रौद्योगिकी
संचार
परिषद,
नईदिल्ली
के
सहयोग
से
स्थापित विज्ञान
संचार
अभिलेखागार
प्रभाग
के
माध्यम
से,
पत्रकारिता
जगत
को
लोकप्रिय
विज्ञान
लेखन
के
लिए
महत्वपूर्ण
संदर्भ
स्रोत
सामग्री
उपलब्ध
कराने
का
अनूठा
प्रयास,
संग्रहालय
कर
रहा
है।
विज्ञान
संचार
अभिलेखागार
प्रभाग
के
तत्वावधान
में हिन्दी
में
विज्ञान
लेखन-
कौशल
एवं
चुनौतियाँ
विषय
पर
दो
के
तत्वावधान
में हिन्दी
में
विज्ञान
लेखन-
कौशल
एवं
चुनौतियाँ
विषय
पर
दो
दिवसीय
राष्ट्रीय
संगोष्ठी
का
भी
सफल
आयोजन
किया
गया।
विज्ञान
संचार
अभिलेखागार
के
विकास
और
इसके
कार्यक्रमों
के
निर्धारण
के
लिए
परामर्श
मण्डल
गठित
किया
गया
है
जिसमें
विभिन्न
विज्ञान
विषयों
के
वरिष्ठ
विद्वानों,
प्राध्यापकों
एवं
विज्ञान-लेखकों
को
शामिल
किया
गया
है।
संग्रहालय
का
एक
अन्य
विशिष्ट
प्रभाग
प्राचीन
पाण्डुलिपियों,
दस्तावेजों
एवं
पत्राचारों
का
है।
इस
संग्रह
में
जो
दुर्लभ
पाण्डुलिपियाँ
हैं
उनमें-
मनुस्मृति,
धर्म
प्रवृत्ति,
समयसार,
संहिताष्टक,
कुंडार्कमूल,
मुहूर्त
चिंतामणि,
श्री
सूक्तक,
गृहलाघव,
तत्वप्रदीप,
कृत्य
मंजरी,
भावप्रकाश,
मिताक्षरा,
झाँसी
की
राइसो,
श्रुतिबोध
जैसी
सन
1509
से
लेकर
1925
तक
की
पांडुलिपियाँ
विशेष
रूप
से
उल्लेखनीय
हैं।
हाल
ही
में
गोस्वामी
तुलसीदास
कृत श्री
रामविवाह
मंगल, श्री
राम
गीतावली, प्रांगन
गीता
एवं श्री
उमाशंभु
विवाह
मंगल
की
हस्तलिखित
पाण्डुलिपियाँ
प्राप्त
हुई
हैं
जो
अपनी
प्राचीनता
एवं
साहित्यिकता
की
दृष्टि
से
अमूल्य
हैं।
हिन्दी
के
ख्यातनाम
गजलगो
दुष्यंतकुमार
की
हस्तलिखित
पाण्डुलिपियाँ
और
पत्राचार
इस
संग्रहालय
की
नवीनतम
उपलब्धि
हैं।
जिन
महत्वपूर्ण
विद्वानों
के
पत्र
व्यवहार
संग्रहालय
की
श्रीवृद्धि
करते
हैं
उनमें
महत्वपूर्ण
हैं-
बनारसीदास
चतुर्वेदी,
गणेशदत्त
शर्मा इन्द्र,
श्रीरंजन
सूरिदेव,
माखनलाल
चतुर्वेदी,
वृन्दावनलाल
वर्मा,
सेठ
गोविन्ददास,
सुभद्राकुमारी
चौहान,
सुमित्रानंदन
पंत,
हजारीप्रसाद
द्विवेदी,
मैथिलीशरण
गुप्त,
भवानीप्रसाद
मिश्र,
नन्ददुलारे
वाजपेयी,
लोचनप्रसाद
पाण्डेय।
सामग्रीदाताओं
के
प्रति
संस्थान
की
कृतज्ञता
एवं
उन्हीं
के
नाम
पर
सामग्री
यहाँ
रखने
का
भाव
श्लाघनीय
है।
उसी
का
सुफल
है
कि
अपने
सीमित
संसाधनों
के
बावजूद
आज
यहाँ
19664
शीर्षक
पत्र-पत्रिकाओं
की
फाइलें,
३5
हजार
पुस्तकें,
तीन
हजार
दस्तावेज
एवं
एक
हजार
पाण्डुलिपियाँ
संग्रहीत
हैं
और
इनमें
रोज-ब-रोज
वृद्धि
हो
रही
है।
यहाँ
दानदाताओं
द्वारा
दी
गई
सामग्री
उनके
नाम
से
ही
संग्रहीत
और
प्रदर्शित
है।
संस्थान
की
इस
खूबी
को
ध्यान
में
रखकर
तत्कालीन
राष्ट्रपति
डॉ.
शंकरदयाल
शर्मा
ने
एक
समारोह
में
सप्रे
संग्रहालय
को
भोपाल
का
गौरव
निरूपित
किया
था।
बात
कुछ
अधूरी
रहेगी
यदि
संस्थान
की
इस
स्वर्णिम
यात्रा
के
सूत्रधार
और
नियामक
वरिष्ठ
पत्रकार
श्री
विजयदत्त
श्रीधर
की
आत्मीय
संलग्नता,
एकनिष्ठ
जुनूनी
प्रयत्न
और
इस
स्वप्न
को
साकार
करने
की
उनकी
अदम्य
जीवट
के
साथ
उनके
सहयोगियों
के
अनथक
परिश्रम
की
चर्चा
न
की
जाये।
इसी
के
बलबूते
ही
संस्थान
को
बौद्धिक
तीर्थ
का
विशेषण
विद्वानों
से
समय-समय
पर
मिलता
रहा
है।
यहाँ
संग्रहीत
इस
मुद्रित
धरोहर
के
डिजिटलीकरण
एवं
कम्प्यूटरीकरण
की
महत्वाकांक्षी
योजना
को
मूर्त
रूप
देने
के
लिए
संस्थान
प्रयासरत
है
ताकि
शोधार्थियों
को
नई
तकनीक
से
और
ज्यादा
आसानी
से
वांछित
संदर्भ
मिल
सकें।
संग्रहीत
सामग्री
की
सुरक्षा
के
अचूक
प्रयत्न,
आगन्तुकों
को
यहाँ
का
अनमोल
खजाना
दिखाने
का
उत्साह,
शोधार्थियों
को
सन्दर्भ
सामग्री
उपलब्ध
कराने
की
तत्परता
और
मार्गदर्शन
और
इनसे
कहीं
बढ़कर
नए
सामग्रीदाताओं
की
अनवरत
खोज
इस
संग्रहालय
की
उल्लेखनीय
विशेषताएँ
हैं।
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